महाराजा सुहेलदेव- अखंड भारत का वीर सपूत

आपको मालूम होगा कि भारत में तुर्क राज्य की स्थापना ग़ुलाम वंश के साथ शुरू हुई, जो की 1192 के आसपास मुहम्मद गोरी के आक्रमण के बाद स्थापित की गई थी। आप इस तथ्य से भी वाक़िफ़ होंगे की महमूद गजनवी ने भारत वर्ष पर 1025 में हमला किया था। महमूद गजनवी भी तुर्क था। हिंदुओ के गर्व और सम्मान को पैरो तले कुचलने हेतु उसने सोमनाथ मंदिर और उसमें स्थापित लिंग को छिन्न भिन्न कर दिया। भारत पर इसके बाद अगला हमला होता है 1191 में मोहम्मद गोरी द्वारा, पृथ्वीराज के शासन में।  आप  यहाँ ऊपर दिए सालो को फिर से पुनः पढ़िए। पहला साल 1025 और दूसरा साल 1191, अंतर लगभग 165 साल का। क्या कारण था कि पहली बार यानी की 1025 में ही अच्छी विजय के बाद भी तुर्कों का अगला हमला 165 साल बाद यानी की 1191 में हुआ। क्या कारण था कि 165 साल तक भारत तुर्कों के हमले से सुरक्षित रहा। क्या कारण था की 165 साल तक तुर्क भारतवर्ष की तरफ नज़र उठा कर देख ना सके। इसका जवाब है महाराजा सुहेलदेव। सुहेल देव ने तुर्की सेना को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया। युद्ध में तुर्की सेना को पूरी तरह से तहस नहस करके तुर्कों को दिल में इतना भय भर दिया किया आगे 170 साल तक वो भारत के ऊपर आक्रमण करने की हिम्मत ना कर सके। 

भारत के इतिहास का भूला दिया गया एक वीर शासक  और योद्धा महाराजा सुहेलदेव। अखंड भारत का  महान देशभक्त पुत्र सुहेलदेव।वो राजा जिसे भारतवर्ष की सुरक्षा में महान योगदान होने के बावजूद भी इतिहास के पन्नो में भूला दिया गया। महाराजा सुहेलदेव वर्तमान उत्तरप्रदेश के श्रावस्ती क्षेत्र के राजा थे। 1025 में सोमनाथ पर गजनी के आक्रमण के समय भारत वर्ष के कुछ राजाओं ने अपनी सामर्थ्य के हिसाब से सोमनाथ की रक्षा हेतु सेनायें भेजी थी। इसमें एक टुकड़ी का नेतृत्व तत्कालीन राजकुमार सुहेलदेव के बड़े भाई मल्लाल देव कर रहे थे। परंतु गजनी की सेना के साथ युद्ध में सोमनाथ की रक्षा करते हुए, वीर गति को प्राप्त हुए। 

इधर तुर्की सेना ने सोमनाथ पर आक्रमण के बाद दिल्ली की तरफ़ कुच किया । दिल्ली के राजा को हराकर वहाँ पर क़ब्ज़ा कर लिया। प्रदेश में स्थित सारे मंदिर तोड़ दिए गए। हिंदू युवावो का क़त्ल प्रारम्भ हो गया। हिंदू औरतें और बच्चों का सरे आम बलात्कार किया गया और ग़ुलाम के रूप में बेच दिया गया। आस पास के सारे राजाओं को संदेश भिजवा दिया कि या तो तुर्की सेना का आधिपत्य  स्वीकार करो या फिर तुर्की सेना का क़हर। बहुत से राजाओं ने तुर्कों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। यानी कि जो राजा तुर्की सेना की ग़ुलामी स्वीकार करते,  तुर्की सेना की एक टुकड़ी उनके राज्य में रहती। तुर्की अधिकारी उनके दरबार नियुक्त किए जाते तथा  उनके शासन में दख़ल अंदाजी कर सकते थे। तुर्की सेना के जवान अपनी मर्ज़ी से मंदिर तोड़ते। गाँव के गाव जला दिए जाते। मतलब की 1025 के बाद महमूद गजनी तो अपने राज्य गजनी वापस लौट गया था लेकिन उसकी सेना का बहुत बड़ा हिस्सा यही रह गया। यह सेना स्थानीय राजाओं के सहयोग से अपना प्रभुत्व आगे बढ़ा रही थी। 

  हालाँकि कुछ राजाओं ने तुर्की सेना का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया जिनमे से एक थे राजा मंगलध्वज जो की श्रावस्ती के महाराज और सुहेलदेव के पिता थे। राजा मंगल ध्वज क्षत्रिय राजा नहीं थे परंतु उन्होंने अपने बाहुबल के ऊपर श्रावस्ती राज्य स्थापित किया था। उनके जातिका कही विवरण तो नहीं है परंतु आप अभी भी पूर्वी उत्तरप्रदेश के ग़ाज़ीपुर ज़िले में जाए तो वहाँ पर राजभर जाती के लोग उनको अपना पुरखा मानते है। आज ग़ाज़ीपुर से दिल्ली के बीच में महाराजा सुहेलदेव नाम की ट्रेन चलती है। राजा मंगलध्वज ने आसपास के बहुत सारे राज्यों को साथ में आने हेतु निमंत्रण दिया परंतु कई सारे राजाओं ने यह कहकर उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया की आप क्षत्रिय राजा नहीं है । आपके साथ साथ हम युद्ध में सहायता क्यू करे। राजाओं को तुर्की ग़ुलामी और अपमान स्वीकार था, उनको अपनी प्रजा पर अत्याचार मंज़ूर था परंतु मंगलध्वज का साथ और दोस्ती नहीं। हमारे हिंदू समाज की शुरू से यही समस्या रही है, ऊपर से तो हम एक हिंदू दिखते है परंतु आपस में बटे हुए। तुर्क समाज में मुसलमान धर्म होने के कारण कोई भी बँटवारा नहीं था। सब भाई भाई की तरह एक होकर दुश्मनो से लड़ते। भारत का हिंदू समाज बाहरी आक्रमण होने पर भी अपने आप को एक नहीं कर पाया था। उस समय ज़रूरत थी भारत वर्ष को राजा सुहेलदेव की जो पूरे भारत वर्ष के लोगों को एक साथ कर सके। 

तुर्की सेना जिस भी गाव में जाती वहा जी  भर क़त्ले आम मचाती। मंदिरो को लूटती, मूर्तियाँ तोड़ती, और मंदिरो में आग लगा देती।  स्त्रियों के साथ बलात्कार और पुरुषों को मौत के घाट उतारती जाती। राजकुमार सुहेलदेव ने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की कोशिस की  कई सारे राज्यों से सहयोग माँग।  राजकुमार सुहेलदेव को जब बाक़ी राजाओं से कोई सहायता नहीं मिली तो उन्होंने अपने पिता कर राज्य त्याग करके अपने कुछ 50-100 सहयोगियों के साथ जंगल का प्रवास करने लगे। तुर्कों पर आक्रमण करने के लिए उन्होंने गोरिल्ला युद्ध की तकनीक अपनाई। जहां भी सूचना मिलती तो जाल बिछा के तुर्की सेना का शिकार करते। और जंगल में भागकर छुप जाते। धीरे धीरे उनकी टुकड़ी में और लोग जुड़ने लगे। उनकी ख्याति आसपास के राज्यों में भी फैलने लगी। चूँकि कई राज्यों के राजा तुर्कों के साथ थे फिर भी बहुत सारे देशभक्त दरबारी जो उनके राज्यों में प्रमुख पद पर आसीन थे, चुपके चुपके सुहेलदेव को मदद भेजते रहते। कभी सूचना, कभी तुर्की सेना की स्थिति तो कभी राशन और सैनिकों के साथ मदद।सुहेल देव का गुर्रिल्ला युद्ध लगभग 4 से 5 साल तक चलता रहा। 

इसी बीच लगभग 1030 में महमूद गजनी की रहस्यमयी परिस्थितियों में गजनी राज्य में मृत्यु हो गई। तुर्की सेना को गजनी में छिड़े गृह युद्ध को सम्भालने वापस जाना पड़ा। परंतु कई सारी टुकड़ियाँ भारत में ही रह गई थी। जिससे की आधीन राजाओं पर नियंत्रण रखा जा सके।

इसी समय के आसपास सुहलेदेव को उनके पिता के मृत्यु के पश्चात राज गद्दी पर बैठाया गया। इस समय तक पूरे भारत वर्ष में और तुर्की सेना को सुहेलदेव के गुरिल्ला युद्ध  के बारे में पता चल चुका था। तुर्की सेना को भारत विजय का सबसे बड़ा काँटा सुहेलदेव ही लगते थे। बाक़ी देश के नागरिकों को उनके बारे में मालूम चल चुका था की कैसे अपनी छोटी सी सेना के दम पर उन्होंने तुर्की सेना के नाक में दम कर रखा था।सुहेलदेव भारतवर्ष के नागरिकों के मन में एक आशा की किरण बन कर उभरे। उन्हें लगा कि भले ही उनके राजा निकम्मे  है, परंतु जब भी उनके गाव पर तुर्कों का क़हर बरपता है, एक सुहेलदेव ही है जो अपनी टुकड़ी के साथ तेज़ी से आते  है और तुर्कों को भगा देते है।  

सुहेलदेव और उनके साथियों को मालूम था की तुर्की सेना तो अभी वापस चली गई है परंतु कुछ सालो में वो लौटेंगे इस बार लौटेंगे और ज़्यादा सेना संख्याबल के साथ  और पूरे भारत को कुचलने की नीति से आएँगे। सुहेलदेव ने भारत के सारे राज्यों का भ्रमण करके छोटे छोटे राज्यों का संगठन बनाया। उनके सहयोग से लगभग 60000 सिपाहियों की सेना तैयार की। उनकी शस्त्र शिक्षा का ज़िम्मा खुद लिया। ऐसा नहीं है की सारे राज्य सुहेलदेव के साथ आए। बहुत सारे राजाओं ने अभी भी तुर्क के साथ ही वफ़ादारी दिखाने में अपनी भलाई समझी। कुछ लालच में तो कुछ भय में। कन्नौज तथा दिल्ली के राजाओं ने तुर्कों के साथ अपनी वफ़ादारी बनाई रखी। सुहेलदेव ने उस समय दक्षिण के सम्राट राजेंद्र चोल से भी मदद माँगी। चोल साम्राज्य उस समय का बहुत ही ताकतवर राज्य था जो आजके श्री लंका, मॉल्डीव्ज़, इंडॉनेसिया और थाई लैंड तक फैला था। राजेंद्र चोल भी शिव भक्त थे। और सोमनाथ मंदिर की वजह  उनकी भी भावनाओं को गहरा आघात पहुँचा था। परंतु उस समय के राजाओं के आपसी फूट के कारण वो भी कुछ कर कर नहीं पाए थे। पूर्वी भारत में उनका साम्राज्य बंगाल में गंगा नदी  तक फैला हुआ था। इसलिए उनको गंगाई कोट्टा की भी उपाधि मिली थी। गंगाई कोट्टा मतलब गंगा के जल को लाने वाला। उन्होंने ने भी सुहेलदेव का सेना का संख्या बल बढ़ाने ने मदद की। 

गृह युद्ध समाप्त होने के बाद तुर्की सेना  1030-31 में अपने सेनापति सालार मक़सूद  के नेतृत्व में इस बार पहले से भी बड़ी सेना लगभग 70000 सैनिकों के साथ भारत आई। सालार मक़सूद महमूद गजनी का भतीजा था। और महमूद गजनी से भी ज़्यादा  क्रूर और धार्मिक उन्माद से भरा हुआ। यह 70000 की सेना गजनी राज्य की लगभग़ पूरी और सबसे सबसे बड़ी सेना थी। लगभग गजनी के सारे सिपाही इसी 70000 सेना में शामिल थे।तुर्क साम्राज्य की इस बार पूरे भारत पर क़ब्ज़े और शासन की योजना थी। इस बार उनका मक़सद ये नहीं था की लूटपाट करेंगे और वापस लौट जाएँगे। वो भारत पर राज्य और ग़ुलाम बनाने के मक़सद से आए थे। तुर्कों की सेना में घुड़सवारों की संख्या ज़्यादा रहती थी तथा वो बहुत ही तेज़ी से आक्रमण करते और दुश्मन की सेना को छिन्न भिन्न कर देते। तुर्क सेना के सिपाही मरने से नहीं डरते थे क्यूँकि उन्हें लगता था कि मरने के बाद जन्नत है। वो डरते थे सिर्फ़ एक चीज़ से ,वो थी आग से मौत। क्यूँकि मुसलमान होने के कारण उन्हें लगता था कि अगर मृत शरीर को आग के हवाले कर दिया तो उन्हें जन्नत नहीं नसीब होगी।  तुर्क की घुड़सवार सेना के पीछे उनकी पैदल सेना और रिज़र्व सेना रहती थी। उनकी सेना में एक से एक शानदार तीरंदाज़ और तलवारबाज़ रहते थे।  1131 में तुर्की सेना फिर से कन्नौज तक पहुँच चुकी थी। और आगे के युद्ध के लिए पड़ाव डाल चुकी थी। 

इधर सुहेलदेव की 60000 की सेना भी श्रावस्ती में सुस्सज्जित और तैयार बैठी थी। सुहेल देव को अच्छी तरह मालूम था की तुर्कों की 70000 की सेना को आमने सामने के युद्ध में हराना मुश्किल होगा। इसलिए तुर्की सेना को लालच देके ऐसे युद्ध के मैदान तक लाना पड़ेगा जहां पर वो अपनी तेज घुड़सवार सेना का उपयोग करके उन्हें चारो तरफ़ से  घेर ना सके। तुर्की सेना को  कुटिल रण नीति के तहत ही हराया जा सकता है। इस युद्ध के लिए उन्होंने चुना बहराइच का मैदान। बहराइच आज भी उत्तरप्रदेश में एक ज़िला है। बहराइच के युद्ध मैदान में उनके एक तरफ़ नदी थी और एक तरफ़ घना जंगल। दोनो तरफ़ से तुर्क सेना आक्रमण नहीं कर सकती थी। अपने घुड़सवारों को सबसे आगे, उसके बाद तीरंदाज़ रखा। और घुड़सवारों से कुछ कदम पहले बहुत सारे भालेज़मीन के अंदर छुपा कर रख दिया। अब एक तरफ़ नदी और दूसरी तरफ़ जंगल होने की वजह से तुर्क सेना को सीधे सामने से आना होगा। 

युद्ध प्रारम्भ हुआ, तुर्की सेना के घुड़सवारों को पहले सुहलेदेव के तीरंदाज़ो ने अपना निशाना बनाया। उसके बाद युद्ध क्षेत्र में बिछाए गए भालों के जाल में तुर्की सेना के घोड़े फँसकर दम तोड़ने लगे। जो घुड़सवार बच कर आगे आते उन्हें भारत सेना के घुड़सवार ज़मीन पर बीछा देते। तुर्की सेना ना तो बायें से आ सकती थी नहीं दाये से क्यूँकि एक तरफ़ नदी तो दूसरी तरफ़ घना जंगल। तुर्की सेना के पैदल सिपाहियों को युद्ध में आना पड़ा जिसे सुहेल देव की सेना ने जिसमें तीरंदाज़, घुड़सवार और पैदल सेना ने गाजर मूली की तरह काट डाला। सुहेलदेव का आदेश था की ना कोई बच के निकल पाए, ना ही किसी को बंदी बनाया जाए, सबको मौत के घाट उतर दिया जाय। बहराइच के मैदान में तुर्कों की 70000 की सेना में से कोई भी बच नहीं पाया। सबको चुन चुन कर मार दिया गया। युद्ध का मैदान 70000 तुर्क सैनिक और 15000 भारतीय सैनिकों खून में सन गया। तुर्कों के पास कोई सेना ही नहीं बची। अब तुर्कों के सामने उनका सबसे बुरा डर आने वाला था। सुहेलदेव ने किसी भी तुर्क सैनिक को दफ़नाने से मना कर दिया और आदेश दिया मारे गए सारे तुर्की सैनिकों को आग के हवाले कर दो। तुर्कों को जवाब उनकी ही भाषा  में दिया। कि तुम हिंदुओ का धर्म भ्रष्ट किए तो तुम्हारा भी होगा  मरने के बाद धर्म भ्रष्ट । तुमको तुम्हारे सबसे  भयानक डर से वाकीफ़ कराना की अगर भारत पर हमले के लिए आए तो मरने के बाद तुम्हें मिट्टी नहीं बल्कि आग मिलेगी। तुर्की सेना के सारे 70000 सैनिकों को आग के हवाले करने के बाद, सालार मक़सूद का कटा हुआ सर गजनी के राजा को भिजवा दिया।

इस बहराइच के युद्ध में तुर्कों की सारी सेना समाप्त हो गई। और उनके हृदय  में यह डर भी बैठ गया की मारने के बाद भी उनको आग के हवाले कर दिया जाएगा। जब तक सुहेलदेव तथा उनके काबिल वंसज रहे, भारत में एकता बनाए रखी। इस बुरी हार के बाद अगले 165 साल तक तुर्क शासक और सेना भारत पर आक्रमण नहीं कर पाई। सुहेलदेव   के कारण भारत को 165 साल की स्थिरता और शांति प्राप्त हुई। 

credit for this story goes to Suheldev written by Amish

1 thought on “महाराजा सुहेलदेव- अखंड भारत का वीर सपूत”

  1. Suheldev the legend: who united the nation against Turks force. A must read book by Amish tripathi. Great work man keep it up!!

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