आज अपना कल पराया

Hindi story

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ये कहानी है ऐसे दो दोस्तों की जो दोस्त होते हुए भी अलग है एक दूसरे से, बिल्कुल अलग, ओंकारनाथ और भोलाराम। ओंकारनाथ जहाँ हर कार्य भविष्य की सोच कर करने वाला था तो भोलाराम उतना ही आज में जीने वाला। ओंकार को आज खेलना नही है क्योंकि आज खेलेगा तो कल परीक्षा में कैसे अव्वल आयेगा, कैसे कोई अच्छी नौकरी लेगा, कैसे अपना जीवन व्यापन करेगा, कैसे घर चलाएगा इत्यादि। वहीं भोला को आज बचपन का गिल्ली डंडा भविष्य की सुखमय जिंदगी से कई ज्यादा सुखकर लगता है।

उसे फ़र्क नहीं पड़ता कि पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है या सुर्य पृथ्वी के, उसे तो बस अपने गाँव के चक्कर लगाना है। उसकी खुशी स्कूल की बारहखड़ी नहीं, स्कूल के बाहर खड़ी होती थी। ओंकार जितना शांत था भोला उतना ही उच्छृंखल। इसी उच्छृंखलता के चलते एक बार पेड़ से गिरकर अपना पैर तुड़वा चुका है और हमेशा के लिए लंगड़ा हो गया। लेकिन इससे सिर्फ चाल बदली, चलन तो आज भी वही है। ओंकार खूब समझाता भी था, लेकिन इसका भोला पर कोई असर ना होता। ओंकार भविष्य की योजनाएं बनाता पढ़ने में लगा रहा तो भोला अपनी बेफिक्री में मस्त रहा।

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आज ओंकार किसी सरकारी स्कूल में शिक्षक है, शादीशुदा है और दो बच्चों का पिता है। उधर भोला ने मिठाई की दुकान लगाई और खूब चल पड़ी, शादी के लिए रिश्ते भी आये लेकिन ज्योहीं लड़की को पता चलता कि लड़का तो लंगड़ा है, रिश्ते के लिए ना हो जाती। इससे भोला का मन इतना खिन्न हुआ कि उसने आजीवन अविवाहित रहने का निश्चय कर लिया। ओंकार ने मित्र को समझाने का पूरा प्रयत्न किया, बोला- “शादी नहीं करोगे? गृहस्थी को संभालने के लिए भी तो जीवन में कोई चाहिये भला। और फिर हमेशा यों ही तो जवान नहीं रहोगे, बुढ़ापे के सहारे के बारे में कुछ सोच है? दो वक्त का खाना देने वाला ना होगा तो किसके सहारे बुढापा काटोगे। बुरे वक्त में कोई अपना होना चाहिये या नहीं?”

भोला ने दृढ़ता से जवाब दिया- “गाँव मे इतने लोग तो है और ये क्या पराये है?  जब जरूरत होती है सब एक दूसरे के काम तो आते ही हैं।”

ओंकार- “बेटा जब तक चार पैसा है जेब में है, तभी तक सब अपने है। और जब बुढ़ापे में अपने बच्चे नहीं होंगे ना, तब पता चलेगा तुम्हें अपने पराये का फर्क।” ओंकार भविष्य की भयानक तस्वीर बनाता था तो भोला उस पर अपनी बेफ़िक्री की धूल फेंकता था। ओंकार इस बुद्धिहीन को ना कभी समझा पाया था ना आज समझा पायेगा, हार मानकर ओंकार चल दिया।

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उस घटना को आज कई वर्ष बीत गए। ओंकार ने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपना तबादला शहर के किसी स्कूल में करवा लिया था और वापस गाँव जाने का कोई मानस भी ना था। अपने हिस्से की जमीन वह सौतेले छोटे भाई दीना को दे आया था, सौतेली माँ से औंकार को कभी कोई स्नेह नहीं मिला, लेकिन दोनों भाइयों में सौतेलेपन वाली कड़वाहट ना थी।  शहर आने के कुछ ही समय बाद ओंकार की पत्नी रत्ना का देहांत हो गया था, जब रत्ना मरणासन्न अवस्था में थी तो उसे एक ही चिंता खाये जा रही थी कि उसके बाद दोनों बच्चों का क्या होगा। सौतेली माँ ना जाने कैसा व्यवहार करेगी इनसे। ओंकार ने रत्ना की इस दशा को देखकर उसे वचन दिया की वो कभी दोबारा शादी नहीं करेगा और हमेशा बच्चों का खयाल रखेगा।

पत्नी के गुजर जाने के बाद ओंकारनाथ बिल्कुल टूट गया लेकिन इस दुःख में भी उसे अपनी जिम्मेदारी का एहसास था। अपना सारा दुःख एक तरफ करके वो कर्तव्य-निर्वहन में लग गया। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक उसका सारा समय दोनों बच्चों की देखभाल में और अपनी नौकरी में बीतता था। बड़े लड़के आकाश की अवस्था पंद्रह की थी तो छोटा लड़का रवि ग्यारह वर्ष का था। आकाश इतना भी छोटा ना था कि घर की देखरेख में पिता की कुछ सहायता ना कर सके , मगर ना ही उसे रुचि थी और ना ही ओंकारनाथ उसे कुछ बोलता।

उसे हमेशा यह डर सताता था कि बच्चें कही ये ना सोचे कि माँ ना होने के कारण उन्हें किसी भी दुःख का सामना करना पड़ रहा है और इसके चलते वह दोनों की हर मांग पूरी करता। कभी कभी अकेले गृहस्थी की गाड़ी खींचते खींचते थक जाता तो सोचता कि पेड़ लगाने में, उसे सींचने में अगर मेहनत है तो फल भी तो उसे ही मिलता है जो मेहनत करता है और वैसे भी जीवन और जीवन के अंतिम क्षणों में उसके पुत्र ही तो उसका सहारा होंगे।

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वर्षों के अथक परिश्रम के बाद ओंकारनाथ सेवानिवृत्त होकर भविष्य की सुखमय कल्पनाओं में खोया हैं। आकाश पढ़ लिख कर बिजली विभाग में सरकारी बाबू हो गया है, अच्छी जगह विवाह भी हो गया है। आकाश की पत्नि कल्पना अपने पिता की इकलौती सन्तान थी। उसने सेवा करवाना सीखा था , करना नहीं। यहाँ ससुराल में उसे नौकरानी सा  एहसास होने लगा। आकाश उसका पति था, उसकी सेवा में उसे कोई आपत्ति ना थी, लेकिन और लोगों की सेवा करना एक दासत्व से कम ना था उसके लिए। फिर रवि भी कुछ गरम मिज़ाज था। देवर-भाभी में बिल्कुल ना बनती थी। रवि के ना घर आने का वक़्त था, ना ही जाने का। कॉलेज के नाम पे पूरी फिजूलखर्ची किया करता था पर अब तक कोई उसे कुछ पूछने वाला ना था। ओंकारनाथ का विचार था कि जब सब कुछ एक दिन इन्हीं लोगों को का हो जाना है तो हिसाब पूछ कर क्या करना है। शायद माँ की कमी पैसों से पूरी करना चाहते था।

  रवि जितने पैसे मांगता उससे ज्यादा ही पाता था। लेकिन कल्पना को ये सब अखरने लगा। आखिर पैसों पे तो दोनों भाइयों का हक है, फिर एक कमाए और एक उड़ाये, ये कब तक चलेगा। वो लगातार आकाश पर अपना हिस्सा लेकर अलग हो जाने के लिये दबाव बनाने लगी। जब आये दिन पति-पत्नि में झगड़ा होने लगा और ओंकारनाथ को इसका पता चला तो बहु को समझाने का प्रयत्न किया, बोला- “बहु! रिश्ता तोड़ लेना, निभाने से काफी आसान है, लेकिन एक बार टूट गया तो जुड़ नहीं पायेगा। और रवि की अभी उम्र ही क्या है, जब वक़्त आएगा, अपने आप समझ भी जाएगा और कमाने भी लगेगा। कुछ दिन के लिए सब्र ही कर लो।”

लेकिन कल्पना अलग होने का मन बना चुकी थी। उसे अलग होने के निर्णय पर नहीं, योजना पर चर्चा करनी थी। सो दृढ निश्चय करके बोली-“बाबूजी, अगर   अवस्था का ही दोष होता तो अवस्था तो आकाश की भी कभी ऐसी ही थी पर उन्होंने तो घर नहीं फूंका। दोष अवस्था का नहीं, स्वभाव का है जो बिरला ही बदलता है और फिर  सब्र करने में नुकसान तो हमारा ही हो रहा है। और वैसे भी आप एक बार तो घर लुटा चुके हैं, दोबारा मत लुटाइये। इससे पहले की बांटने को कुछ बचे ही नहीं, आप बंटवारा कर दीजिए।” ओंकारनाथ को जीवन में पहली बार किसी ने इतनी खरी खरी सुनायी थी, अपनी ही संपति पर अधिकारहीनता प्रतीत होने लगी। स्वामित्व खोखला लगने लगा। अभी तक तो आकाश ने अपने वेतन से एक पैसा उसे नहीं दिया था फिर किस अधिकार से ये लोग बंटवारे की बात करते हैं।

आखिर ओंकारनाथ क्या सारा पैसा कहीं लेकर जाना चाहते था, बस इतना ही तो चाहते था कि जब तक रवि अपने पैरों पे खड़ा ना हो जाय, उसका घर ना बसे, तब तक सब लोग साथ रहे। ओंकारनाथ जितना कल्पना की बातों से व्यथित था, उससे कहीं ज्यादा आकाश के मौन से दुःखी था। देखा जब सबको साथ रखने के चक्कर में और जग हँसायी हुई जाती है तो फैसला कर लिया कि आधा हिस्सा आकाश को देकर अलग कर ही दिया जाए।

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आकाश को अलग हुए लगभग दो साल हो गए। शुरू में तो वो लोग कभी कभार मिलने आ जाये करते थे, लेकिन धीर-धीरे ये मिलना-जुलना बंद-सा हो गया। ओंकारनाथ कभी आकाश से इस विषय में कुछ बोलता तो वो हमेशा नौकरी और फिर परिवार में व्यस्त होने की दुहाई देता। ओंकारनाथ स्वयं भी कम ही मिलने जाया करता था। उस पर तो फिर से घर की देखरेख करने की जिम्मेदारी आ गयी थी।

रवि का कोलेज पूरा हुए एक साल हो चुका था लेकिन ना तो उसके पास कोई नौकरी थी और ना ही उसे इसकी कोई परवाह थी। कोलेज में नशे की आदत भी लगा चुका था, तब पढ़ाई के नाम पर पैसे मिल जाया करते थे पर अब वो भी बंद थे। हर वक़्त चिड़चिड़ा रहता था, कुछ भी बात करो तो उल्टा ही जवाब दिया करता। ओंकारनाथ को लोगों ने सलाह दी कि लड़के की शादी करवा दी जाए, इस तरह से जिम्मेदारी में दब कर नौकरी भी करने लगेगा और ओंकारनाथ को भी इस उम्र में गृहस्थी संभालने से छुटकारा मिलेगा। ओंकारनाथ ने जैसे-तैसे रवि को शादी के लिए मना लिया। रवि की शादी तो करवा दी गयी लेकिन मामला संभलने की बजाय और बिगड़ने लगा।

रवि सारा दिन या तो घर रहता या बाहर जाता तो दो-तीन दिन तक वापस ही नहीं आता। कुछ पूछो तो कहता कि अपना व्यापार शुरू करेगा। एक दिन घर पर पुलिस पूछताछ करने आई तो पता चला कि रवि का उठना-बैठना ठीक लोगों में नहीं था। उसके दोस्त किसी चोरी की वारदात में शामिल थे और रवि का भी नाम आया था उसमें। ओंकारनाथ ने खूब दौड़-भाग करके रवि को इस सबसे बचा तो लिया लेकिन इसमें खूब आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा।

रवि की पत्नी मनु को रवि के निठल्लेपन से शिकायत थी तो पति से ही कहासुनी होती थी लेकिन अब तो उसने इस सब के लिए ओंकारनाथ को जिम्मेदार मान लिया। उसका मानना था कि ओंकारनाथ ने सिर्फ आकाश की परवरिश पर ध्यान दिया। रवि के भविष्य को लेकर वो कभी गंभीर रहा ही नहीं। अगर रवि नशेबाज है, निठल्ला है तो ये सब जानते हुए भी इसका विवाह उससे क्यों करवाया। वो इन बातों को जितना सोचती, उतना ही गुस्सा बढ़ता जाता। रवि को कुछ कहने से उसको कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था, फिर कहके ही क्या करे। चोट देने में मजा तभी है जब सामने वाला चौटिल तो हो। वो अपना सारा गुस्सा ओंकारनाथ पर निकालने लगी। अपने वाक-बाण चलाने में वो सारी मर्यादा भूल जाती थी। वैसे भी ओंकारनाथ उसके लिए अब ससुर नहीं बल्कि ऐसा व्यक्ति है जिसने उसका सारा जीवन नष्ट कर दिया और ऐसा व्यक्ति सम्मान का नहीं, सिर्फ घृणा का अधिकारी है।

एक बार जब रवि और मनु में बहुत ज्यादा विवाद हो रहा था और ओंकारनाथ बीच-बचाव करने पहुंचा तो मनु ने उल्टा ओंकारनाथ पर ही हाथ उठा दिया। यह आख़िरी चोट थी जो वो वृद्धात्मा सह सकती थी। उसने अपना सारा जीवन अपने पुत्रों की परवरिश में लगा दिया और उसका ये ईनाम। यह सच है कि ओंकारनाथ ने अपने पुत्रों को ही सदैव अपने बुढ़ापे का सहारा माना, उन्हीं पे सारी भविष्य की आशाएं टिकी हुई थी, लेकिन स्वाभिमान का सौदा करके उसे कोई सुख नहीं चाहिए था और वैसे भी यहाँ उसे आज तक कौनसा सुख मिला था या मिलने वाला था जिसके लिए वो यह सब सहे। उसके सारे जीवन का वो संघर्ष, वो अथक परिश्रम, व्यर्थ होता प्रतीत हुआ। एक लुटे हुए व्यापारी की भांति, जिसके सारे जीवन की जमा पूँजी डूब गई हो, ओंकारनाथ घर से बाहर निकला। ना किसी को कुछ बताया, ना किसी ने उनसे कुछ पूछा।

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जब ओंकारनाथ घर से बाहर निकला, तो कोई मंजिल तय करके नहीं निकला था, बस उस घर में और रुक पाना उसके लिए असंभव था। बस चले जा रहा था, विचारों में खोये हुए। गाँव से निकला कोई व्यक्ति, शहर आकर कितनी ही उन्नति कर ले, जब दुःखी होता है तो अपने-आप गाँव, अपना घर याद आने लगता है। यह जानते हुए भी की इस समस्या का वहाँ भी कोई निवारण नहीं है, फिर भी लगता है जैसे वहाँ जाकर सब ठीक हो जाएगा। उसे गाँव में स्वर्ग दिखने लगता है जहाँ जाकर उसके सारे दुःख दूर हो जाएंगे। ओंकारनाथ की मनोदशा भी कुछ ऐसी ही थी। उसे अपना गाँव, अपना घर याद आने लगा। उसे अपना विपन्नता से भरा संघर्षमय बचपन इस सुविधा-संपन्न वर्तमान से कई अधिक सुखकर प्रतीत हुआ। तय कर लिया कि अकारण ही सही, अपने गाँव कुछ समय तो व्यतीत करेगा। वैसे भी यहाँ कौनसा सुख था जिसके लिए वो रुकता।

गाँव में उसने अपने हिस्से की संपत्ति अपने सौतेले भाई को दे दी थी, जिसके लिए उसके बेटों ने, बहु ने कितनी ही बार खरी-खोटी सुनायी थी। सोचा कि यहाँ की संपत्ति का तो बंटवारा कर ही चुका है, वहाँ भी जाकर भाई से बात कर ली जाय कि अब तक तो उसने ओंकारनाथ के हिस्से के खेत बोये थे, लेकिन अब उन्हें लौटा दिया जाय। आखिर ओंकारनाथ को भी तो उसका बंटवारा करना था अपने दोनों बेटों में। अजीब होता है ये मोह भी, जिनसे दुःखी होकर औंकार घर से निकला हैं, उन्हीं के सुख की कामना नहीं छोड़ पा रहा है।

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गाँव के लिए बहुत बसें नहीं थी, ओंकारनाथ सुबह घर से निकला था, गाँव पहुँचते-पहुँचते शाम हो गयी थी। एक ही बस जाती थी शहर से गाँव को-दोपहर में। बहुत बार तो उसका मन होते हुए भी इस असुविधा के चलते वो गाँव नहीं आता था लेकिन आज उसके स्वाभिमान को चोट पहुँची थी, आज उसे अपने गाँव आने के लिए ना तो विशेष सुविधा चाहिए थी ना ही प्रयोजन।

गाँव आते ही औंकार सीधा अपने घर पहुंचा। उसका भाई दीनानाथ बाहर चारपाई पे बैठा था। अपने बड़े भाई को इतने वर्षों बाद देखने की ख़ुशी उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे रही थी, अपने भाई को गले लगाकर फिर रोष व्यक्त करते हुए बोला- “भैया! क्या तुम्हारा सगा भाई होता तो भी इतने ही दिनों में सुध लेते? रमेश (दीनानाथ का बेटा) कितनी ही बार बोलता है कि ताऊ जी यहाँ आकर क्या करेंगे? खेत-खलिहान तो हमें दे दिए। बचा क्या जिसके लिए यहाँ आने लगे। सच बताता हूँ भैया, कितनी ही बार मुझे लगा कि आकर तुम्हें साफ कह दू कि संभालो अपनी अमानत, जब तक आप हैं ठीक है, लेकिन आकाश और रवि इस बात को कभी ना मानेंगे कि आप अपना सब-कुछ मुझे देकर चल दें। और फिर जब आपने वहाँ सब बंटवारा कर ही दिया तो यहाँ का भी हो ही जाना चाहिए। अपना हिस्सा लो और मुझे भी इस ऋण से उऋण करो।”

ओंकारनाथ जब चला था तो इसी उधेड़बुन में था कि दीनानाथ से कैसे इस विषय में चर्चा करेगा। कैसे एक बार देकर कोई चीज वापस लेने की बात करे और दीनानाथ भी अब तक तो उसे अपनी ही संपत्ति समझने लगा होगा लेकिन आश्चर्य कि वो आज भी उसे अमानत ही समझता है और आगे होकर लौटाने की बात करता है। आत्मग्लानि के भाव से बोला- “भाई अभी तो आया हूं और आते ही तुमने तो बंटवारे की बातें शुरू कर दी। ये सब बातें क्या वहाँ कम थी जो यहाँ भी तुम शुरू हो गए।”

 दीनानाथ समझ गया कि भैया अकारण ही गाँव नहीं आये हैं। कुछ तो है जो इन्हें परेशान कर रहा है। जिज्ञासु भाव से बोला- “क्यों भैया, वहाँ सब ठीक तो है ना? बच्चे सब अच्छे हैं ना?”

 ओंकारनाथ-“मेरे अलावा सब अच्छे है भाई, बस मैं ही बुरा हूं।”

 ओंकारनाथ आगे कुछ बोलता इससे पहले दीनानाथ के लड़के रमेश ने आकर अपने ताऊजी के पैर छूए और बोला-” तो ताऊजी को याद है कि यहाँ भी उनके बच्चे रहते हैं। हम तो समझते थे कि ताऊजी ने हमें भूला ही दिया। ठीक है, अब इतने दिनों बाद आये हैं तो आते ही जाने की ज़िद ना करना।”

 रमेश की बातें दिखावटी ना थी और ये अपनापन ओंकारनाथ को भी साफ दिख रहा था। ओंकारनाथ- “जाने की ज़िद क्यों भाई, अब मुझ वृद्ध को काम ही क्या है। यहाँ रहूं चाहे वहाँ।” 

दोनों पिता-पुत्र ओंकारनाथ को घर में ले गए, खूब आवभगत की। नाराजगी थी तो बस एक कि ओंकारनाथ ने शहर जाकर सबको भूला क्यों दिया। खाना खाकर ओंकारनाथ चारपाई पर लेट गया पर नींद कहाँ। नींद के लिए देह ही नहीं मन भी शांत होना चाहिए, जो कि था नहीं।

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सुबह ओंकारनाथ, अपने भाई दीना के साथ खेतों की सैर करने निकला। रात को ज्यादा बात हो नहीं पाई थी और भाई का हाल जाने बिना अपना दुःख सुनाना उसे स्वार्थपरक जान पड़ा। बोला- “दीना, कुशल से तो हो भाई? लड़का कहना तो मानता है ना?” 

दीना-  “भैया यूँ समझ लो, शायद पिछले जनम के कर्म  होंगे वरना मैं तो इसको ना तो पढ़ा लिखाकर कोई बड़ा आदमी बना पाया, ना ही कोई अच्छी जिंदगी दे पाया। अपनी जिंदगी तो तंगहाली में बीती है और इस पर भी कर्ज का बोझ लाद दिया लेकिन रमेश ने रात-दिन एक करके सब संभाल लिया। आज समाज में इज्ज़त है, लोग पूछते है तो बस सब इसका किया है। सच बताता हूँ, तुमने जितना अपने बच्चों के लिए किया है मैं तो उसका लेशमात्र भी ना कर पाया। तुम्हें तो तुम्हारे बच्चे पूजते होंगे।” 

ओंकारनाथ पहले ही दुःखी था, दीना की इस तुलना और गलतफहमी ने तो उसका दुःख और बढा दिया। बोला- “भाई तुम तो जानते हो, मैंने अपने बच्चों के सामने अपनी जिंदगी को जिंदगी ना समझा। सारे जीवन के त्याग और समर्पण का इससे सुखद फल और क्या मिलेगा जिसमें एक बेटे के पास बूढ़े बाप के लिए वक़्त ही नहीं है और दूसरा जिसके पास वक़्त है, उसके पास बस वक़्त ही है। आकाश अपना हिस्सा लेकर अपनी जिंदगी में व्यस्त है और रवि ने बुरी संगत ना छोड़ने की जैसे कसम खा रखी हो। आकाश को डर है कि रवि की बुराइयों की वजह से उसे कोई परेशानी ना हो सो उसने अपना हिस्सा लेकर रवि के साथ-साथ मुझसे भी दूरी बना ली है और उधर रवि की बहू इस सब के लिए मुझे ही जिम्मेदार मानती है। तुम पूजा करने की बात करते हो, वो तो मेरी शक़्ल से भी नफरत करती है।” 

 ये कहते -कहते ओंकारनाथ की आँखे भर आयी। इंसान परायों में सारा दुःख चुपचाप सह सकता है लेकिन रोया तो अपनों के बीच ही जाता है। दीना को अपने भाई की हालत जानकर दुःख हुआ लेकिन उससे कई ज्यादा आश्चर्य हुआ कि सन्तान के सुख के लिए जब भैया ने कोई कमी नहीं छोड़ी तो क्या उन्हें अधिकार नहीं है सन्तान-सुख का।   दोनों बहुएं तो पराये घर से आई हैं पर क्या आकाश और रवि को अपने पिता का त्याग और संघर्ष नहीं दिखता। उसका आश्चर्य क्रोध में परिवर्तित हो चुका था, मन करता था आज ही जाकर  दोनों को लताड़ लगाए कि क्या यही कर्तव्य है उनका, एक वृद्ध पिता के प्रति जिसने उनकी खुशी के लिए सारा जीवन संघर्षमय वैध्वय में काट दिया ताकि उसके बच्चों को कभी भी विमाता की कटुता ना झेलनी पड़े।

इन्हीं सुख-दुःख की बातों में दोनों भाई कब अपने खेत पर पहुँच गए, पता ही ना चला। ओंकारनाथ ने महसूस किया कि वो अपनी व्यथा में जैसे कुछ देख ही नहीं पा रहा था। अपनी उद्विग्नता से बाहर निकल कर देखा तो लगा जैसे वो गेहूं के लहलहाते खेत, वो पुराना बरगद का पेड़, वो सुबह की ओस की बूंदे उनके पैरों से लिपटकर एक शिकायत सी कर रहे हैं, मानों कह रहे हो कि भले आदमी ऐसी भी क्या नाराजगी थी जो एक बार भी पलट के ना देखा, ऐसी भी क्या व्यस्तता थी जो अपने बचपन को और तो और बचपन के सखाओं को भी भुला दिया।

इस विचार-श्रृंखला में बचपन जैसे आँखों के आगे नाचने लगा और सहसा उन्हें अपना बचपन का सखा भोला याद आ गया। कई वर्षों से उसकी शक्ल तक ना देखी थी। उसके बारे में जाने बिना रहा नहीं गया तो दीना से पूछा- “भोला का हाल कैसा है, बड़ा असहाय होगा? बहुत समझाया था उसको कि विवाह कर लो, पर ज़िद्दी था ना। आज पानी तक को पुछने वाला ना होगा, सोचकर ही तरस आता है।” ओंकारनाथ की हालत एक ऐसे जुआरी जैसी थी जो जुए में अपना सर्वस्व लुटाकर भी उसी जुए से सम्पन्न होने का स्वप्न देखता है। गृहस्थ-जीवन से दुःखी थे और उसी से अब भी सुख की आशा रखते थे।

           दीना को गलतफहमी थी कि उसके भैया का बुढ़ापा सुख से कटता होगा और भैया की हालत जानकर आश्चर्य भी हुआ था लेकिन उससे कई ज्यादा आश्चर्य उसे अपने भैया की अनभिज्ञता पर हुआ। इस बार गलतफहमी ओंकारनाथ की दूर होनी थी। बोला-“भोला नहीं, भोला काका कहो भैया। अब सारा गाँव उसे यही बुलाता है। और पानी की क्या पूछना, पूरे गाँव में कोई काम भोला काका को पूछे बिना नहीं होता। हमारे अपने तो परिवार तक ही सीमित है मगर भोला काका के लिए तो पूरा गाँव ही परिवार है। किसी को कुछ भी विपत्ति आन पड़ी, भोला काका के पास भागे जाओ। शरीफों में शरीफ, बदमाशों में छटे हुए बदमाश।

दूसरों की छोड़ो,आप बीती बताता हूँ। अपने ही खेतों में से तुम्हारा वाला काफी हिस्सा गाँव के ठाकुर ने धीरे-धीरे करके हड़प लिया था। शिकायत करने गया तो ठाकुर कहता है- “क्या करें, कुँअर नहीं मानते, बहुत जिद्दी है भाई और गुस्सेल भी। एकलौते बेटे है तो ज्यादा कुछ बोल भी नहीं सकते। तुम्हारा भी तो एक ही बेटा है ना दीना? भगवान लम्बी उमर दे उसको। घर का चिराग कुशल से है तो इस मोह माया में क्या रखा है। वैसे भी जमीन से ज्यादा मोह अच्छा नहीं दीना, जान है तो जहांन है। कहीं ऐसा ना हो कि जमीन के चक्कर में तुम परिवार से हाथ धो बैठो। और वैसे भी जो खोया है वो कौनसा तुम्हारा था, था तो भाई का ना, एक ना एक दिन जाना ही था।  एक बेटा है, वो है तुम्हारा, तुम उसकी कुशल की चिंता करने की बजाय जमीन का राग अलापते हो, गजब स्वार्थ है भाई। इस उमर में मोह-माया से निकल कर भजन करो, भगवान को अगर देना होगा तो जितनी बची है उसमें भी बहुत दे देंगे। तुम नाहक परेशान होते हो।”

     अच्छे से जानता था भैया की सारा किया धरा इसी ठाकुर का है,  लेकिन कपटी अपनी नीयत ठीक करने की बजाय मुझे ही कीर्तन करने का पाठ पढ़ाने लगा। बेटे की लम्पटता की तो आड़ ले रहा है, इसका बेटा अय्याश और लम्पट है लेकिन लोभी नहीं। वह लूटने में नहीं, लुटाने में लगा है और इसी लिए ठाकुर का लालच भी बढ़ता जा रहा था। वैसे भी लुटाया मुफ्त का जा सकता है, मेहनत का नहीं। दुःखी होकर घर लौट रहा था कि रास्ते में भोला काका मिल गए। मेरा उतरा हुआ चेहरा देखा, कहने लगे कि तुम मेरे दोस्त के छोटे भाई हो तो मेरे लिए भी छोटे भाई जैसे ही हो, बताओ क्या दिक्कत है। मैंने भी कह दिया कि उसी दोस्त की जमीन छुड़ाने गया था जो ठाकुर ने जबरदस्ती ले ली है, यह कह कर पूरा हाल शब्दसः बयाँ कर दिया। मेरे ये बोलते ही भोला काका ताली पीटकर हँसने लगे, बोले- “जमीन ले ली? कहाँ ले गए? जमीन जहाँ है वही रहती है, तुम तो ख़ामख़ा परेशान होते हो। सही तो कहता है ठाकुर कि तुम बेवजह परेशान हो रहे हो।”

      सच कहता हूँ भैया, उस वक्त मुझे ठाकुर से कई ज्यादा गुस्सा भोला काका पर आया पर बुरा वक्त समझ कर चुप रहा और घर चला आया। जानता था कि गाँव में तो कोई ठाकुर के खिलाफ बोलेगा नहीं और कानून को वो अपनी जेब में रखता है। कोई उपाय ना सूझता था कि कुछ दिन बाद ठाकुर खुद मेरे घर आ गया।  डरता था कि दुष्ट अब जानें क्या चाहता है, जमीन तो ले ही चुका। मैं कुछ बोलूं इससे पहले ठाकुर खुद बोलने लगा- “दीना वो जमीन तुम्हारी थी और तुम्हारी ही रहेगी। थोड़े दिन मैंने बो ली तो क्या वो मेरी हो गई।  तुम तो मेरे अपने हो और अपनों में तो जमीनी विवाद आदिकाल से होता आ रहा है लेकिन इतनी सी बात के लिए उस पाजी भोला को बीच में लाने की क्या जरूरत थी। कमबख्त कहता है कि भोला भले ही सीधा ना चल सके, लेकिन लोगों को सीधा चला सकता है। इतनी बदतमीजी से आज तक किसी ने बात नहीं की हमसे। तुम चाहो तो अपनी क्या हमारी जमीन भी बो लो, भगवान ने इतनी जमीन दी है तो किसके लिए है। बस एक विनती है भाई, अपने मन में कोई बात ना रखना और उस दुष्ट भोला से कह देना कि तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं। अपने जैसा एक ही बदमाश है पूरे गाँव में, लोगों को परेशान करने का तो बहाना ढूंढ़ता है।” 

ये सब कह कर ठाकुर भोला काका को गालियाँ देते हुए चला गया और मैं बिल्कुल ना समझ पा रहा था कि ये उल्टी गंगा कैसे बह रही है। लेकिन खुश था कि जैसे भी हुआ हो, मुझे अपना हक वापस मिल गया। इतना सब सुनकर ओंकारनाथ भी अपना कौतूहल रोक ना पाया, बोला- “भाई ठाकुर के हृदय-परिवर्तन का कारण क्या था? पहले तो लालच में अंधा हो रखा था। क्या सच में बदल गया था वो?”

दीना-“हृदय-परिवर्तन नहीं कायाकल्प हुआ था उसका और अपने भोला काका ने करवाया था। उनका उठना-बैठना शरीफों में है तो बदमाशों में भी। ठाकुर साहब की ऐसी मरम्मत करवाई कि जीते-जी समझो मोक्ष प्राप्त कर गए। लेकिन इस बात का जिक्र करके भोला काका का तो कुछ होगा नहीं उल्टा ठाकुर साहब की शान में दाग लगेगा, सो ठाकुर साहब ने चुप्पी साध ली।”

ओंकारनाथ-“तो भोला मसीहा हो गया है अब दीन-दुखियों का।”

दीना-“केवल मसीहा नहीं, मस्त मौला मसीहा। भैया जो जी मैं आये, करते है। होली पे दीवाली और दीवाली पे होली मनाने वाले लोगों में हैं। पिछले महीने लंगड़ा-दौड़ करवाई और बाद में सभी लंगड़ों को ईनाम दिलवा दिया। ख़र्चा करते है क्योंकि कोई बचा नहीं जिसके लिए बचाए। उनकी जिंदगी कल में नहीं, आज में है। बाकि का हाल तुम खुद मिलकर जान लेना।” 

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     भोला के बारे में इतना सब सुनकर ओंकारनाथ भोला से मिलने को बैचेन होने लगा। दोपहर तक दोनों भाई जब खेत से लौटे तो ओंकारनाथ सीधे भोला के घर पहुंचा। उस वक़्त भोला गाँव के कुछ लोगों के बीच बैठा किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रहा था, ऐसा लगता था मानों किसी राजा का दरबार लगा हो। जैसे ही अपने बाल-सखा को देखा, तो बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। बहुत गर्व से सबसे परिचय करवाया और सबके जाने के बाद भोला रोष व्यक्त करते हुए बोला-“देर से ही सही, आख़िर अपने भोला कि याद तो आई। मजे से तो रहे?” 

ओंकारनाथ-“भाई मजे से वो रहते हैं जिनकी किश्मत में लिखा होता है मजे से रहना। मेरी ऐसी किश्मत कहाँ?”

भोला मजाक से-“क्यों भाई, इतने योजनाबद्ध जीवन का कोई फायदा नहीं?”

ओंकारनाथ-“नहीं, क्योंकि अगर फायदा होता तो मेरे ये हालात ना होते। जिनके लिए जिंदगी भर संघर्ष किया, जिनके सुख के प्रबंध में जीवन गुजारा, वो ही दुःखों का कारण बन गए। कर्तव्य किसी को नहीं सूझता, सब अधिकार की सोचते हैं। इस संघर्षमय जीवन का ऐसा अंत तो नहीं सोचा था।”

भोला के लिए ओंकार की कहानी कोई नई ना थी। ओंकार जैसे कितने ही वृद्ध थे जिनके दुःखों का कारण उनकी संतान से अधिक उनका स्वयं का मोह होता था।

ओंकार के नैराश्य पर हँसते हुए बोला-“अंत? अंत हुआ कहाँ है अभी। मरना तो एक दिन सभी को है दोस्त, मगर मरने से पहले क्यों मरें। और रही बात तुम्हारे दुःखों की, उसका इलाज है मेरे पास, बस तुम्हें मेरी एक बात माननी होगी।”

ओंकारनाथ के आश्चर्य का ठीकाना ना था। जिस समस्या का हल उसे असंभव प्रतीत होता था, उसे भोला चुटकियों में हल करने की बात करता है। क्या आकाश वापस उनके साथ रहने लगेगा? क्या रवि सब बुरी आदतें छोड़कर कोई काम धंधा शुरू कर देगा? क्या रवि की बहू की सोच ओंकारनाथ के लिए हमेशा के लिए बदल जाएगी? अगर हाँ, तो इस सुख के लिए तो जीवनपर्यन्त तपस्या की है, थोड़े दिन और सही। ओंकार ने हाँ की तो भोला ने शर्त ये रखी कि जब तक भोला ना कहे, औंकार वापस शहर नहीं जा सकता और तब तक भोला के ही साथ रहना होगा। वास्तव में भोला, औंकार को उस नकारात्मक वातावरण से निकाल कर यहाँ गाँव में रहने को बाध्य करना चाहता था, शायद वहाँ से निकलकर औंकार के हालात नहीं तो सोच ही बदल जाये।

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       औंकार को अब गाँव में रहते हुए लगभग दो साल हो गए। इस दौरान गाँव ने अपने भोला काका को हमेशा के लिए खो दिया था। एक रात खाना खाकर दोनों दोस्त बातें करके सोये मगर सुबह उठ एक ही पाया, कदाचित हृदयघात रहा होगा। भोला की अंतिम यात्रा शायद किसी राजा से कम ना थी। जिस भोला के लिए औंकार हमेशा सोचता था कि अंतिम समय में इसके साथ कोई अपना ना होगा, उसके साथ पूरा गाँव खड़ा था। उस भीड़ में भोला का कोई बेटा, भाई या रिश्तेदार ना था मगर हर कोई आँसू बहाता था जैसे सच में उन्होंने किसी अपने को खो दिया हो।

शायद यही सच्ची सेवा का फल है। औंकार जिसको आजीवन सेवा और त्याग समझता रहा, वो तो कदाचित स्वार्थ का ही एक रूप था। वो सब कुछ अपने बेटों के लिए यही सोचकर तो करता रहा कि एक दिन वो भी उसकी सेवा करेंगे। ये सेवा नहीं, व्यापार था जिसमें उसको नुकसान हुआ था। सेवा तो भोला करता था, किसी से कोई अपेक्षा नहीं। और जहाँ अपेक्षा नहीं, वहाँ कैसा नुकसान और कैसी निराशा।

      जब से औंकार गाँव आया था तो भोला को गरीब बच्चों की शिक्षा को लेकर परेशान देखता था। आश्चर्य होता था कि जिसने स्वयं की शिक्षा को कभी गंभीरता से ना लिया वो दूसरों के लिए कितना सोचता है। औंकार ने ये जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। इस दौरान ना तो भोला ने उसे शहर जाने की अनुमति दी थी और ना ही औंकार ने माँगी भी। उसकी एक दिनचर्या सी बन गयी थी। सुबह उठकर अपने खेतों की सैर करना, दिन में बच्चों को पढ़ाना, शाम को अपने बाल-सखाओं के बीच बैठना। औंकार को यहाँ भोला, भाई दीना और गाँव वालों के बीच फिर से एक परिवार मिल गया था। एक परिवार जहाँ कोई अपेक्षाएं नहीं, कोई स्वार्थ नहीं, बस विशुद्ध प्रेम था।

भोला मरकर औंकार के लिए प्रेरणा-स्त्रोत बन गया था। अब औंकार की आँखों के सामने आने वाला भयानक कल नहीं, बस आज होता है। किसी को कुछ भी समस्या हो, औंकार हमेशा तैयार रहता है। अब उसे कोई दुःख, कोई चिंता न थी, बस एक उत्साह है जीवन जीने का। और जहाँ मन स्वस्थ, वहाँ तन कैसे बीमार रहे। ऐसा लगता था कि गाँव ने अपना भोला काका को खोया नहीं है, बस रूप बदल कर औंकार में जिंदा है। एक अजीब आदत होती है गाँव वालों में, जिस संबोधन को कोई एक- दो लोग काम लेते हो, कभी-कभी पूरा गाँव उसे काम लेने लगता है। जैसे भोला, भोला काका हो गया था वैसे ही औंकार अब केवल औंकार नही, औंकार ताऊ है पूरे गाँव के लिए।

    ऐसा नहीं है कि शहर से कोई आया नहीं था औंकार को बुलाने, बस औंकार ने खुद ही शहर को आखिरी अलविदा कह दिया था। वैसे भी जब आकाश बुलाने आया था तो उसके पीछे का कारण पिता के लिए चिंता ना थी, अपितु कुछ लोकलाज तो कुछ संपत्ति का लालच था। जिसका बंटवारा अभी भी होना बाकी था। लेकिन औंकार अब वो भावुक, भविष्य-भीरू, सन्तान-सुख की चिंता में रात-दिन घुलने वाला औंकार ना था। संतान के लिए अपने हिस्से की जिम्मेदारी वो पहले ही निभा चुका था, अब और नहीं। अब उसे सच में फर्क नही पड़ता कि उसके  आखिरी वक़्त में उसके साथ कौन खड़ा होगा। अब उसका सुख, संतान से मिलने वाली सेवा में नहीं था। बिना सम्मान के तो वो भिक्षा से भी बुरी है। जीवन का अंतिम समय अपनी जन्म-भूमि में, अपने लोगों के बीच बीते, जहाँ चाहे आराम हो ना हो पर सम्मान हो। यही सच्चा सुख, उस वृद्धात्मा के बुढ़ापे का सुख है।

लेखक – कमलेश शर्मा

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13 thoughts on “आज अपना कल पराया”

  1. जब से मित्र कमलेश से मिला तबसे कई बार उसके मुँह से मुंशी प्रेमचंद जी का नाम सुनने को मिला। आज उसकी लिखी कहानी पढ़कर मुंशी जी के प्रति उसकी सचमुच की श्रद्धा महसूस हुई। मुंशी जी के प्रति उसकी श्रद्धा ने उसकी कहानी को जिह्वा दी है और उसके कलम को शब्द। मेरी शुभकामनाएं

    1. जो आज हैं ..वो सिर्फ आज है… बहुत ही अच्छी कहानी लिखी भाई… Superb Kamlesh 👍👍

  2. The story is a mirror to our Indian society, The writer should be praised for his thoughts and for leaving a beautiful message to his readers.

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