ट्रेन और जीवन

कई दिनो से मन में एक विचार कौंध रहा था।बार बार ट्रेन में सफ़र करते समय यह महसूस भी हुआ था। चलती ट्रेन में कोई किसी स्टेशन पर चढ़ता है। बग़ल वाली सीट पर बैठता है। सफ़र करते करते कुछ बातें  होती है। दोस्ती हो जाती है। और साथ में खाना भी खाया जाता है। कुछ स्टेशन छूटने के बाद या तो हम या वो साथी उतर जाता है। शायद ज़िंदगी में कभी फिर से मुलाक़ात ना होगी।मन भारी सा हो जाता है। कुछ घंटे बुरा लगता है। फिर अपने आप सब सही लगने लगता है। कुछ देर बाद कोई और चढ़ता है। और फिर से वही साइकल चालू। और अंत में हमें भी तो उतरना होता है। जब तक मेरी यात्रा है तब तक मैं  ट्रेन में हूँ। और जब समय आ जाए तो उतर जाता हूँ। अगर मैं  अपने दोस्त मित्रों के चलते  ट्रेन से उतरूँ  ही  ना तो? उसी ट्रेन में बैठे रहना बेवक़ूफ़ी होगी। या तो वह मुझे मेरे गंतव्य स्थल से ग़लत जगह ले जाएगी, या फिर कही जाकर हमेशा के लिए ठहर जाएगी। मैं अपने मक़सद में कामयाब ना हो पाऊँगा। वो मक़सद जिसके लिए मुझे ये ट्रेन यात्रा मुहैया कराई गई थी।

मेरी समझ में यह पूरी ट्रेन एक संसार की तरह है। अलग अलग डिब्बे अलग अलग देशों की तरह है। कुछ AC डब्बे, कुछ स्लीपर तो कुछ General  डब्बे। डब्बों के अंदर हमसे दूर की सीट पर बैठे लोग, देश/प्रांत के लोग, day to  day  लाइफ़ में जिनसे हमें कुछ ज़्यादा मतलब नही, सिवाय इसके की वो अपने देश/प्रांत के लोग है। हमसे थोड़ी दूर पर बैठे है, हमारे पड़ोसी। और अग़ल बग़ल और आमने सामने की सीट पर बैठे है, यार मित्र और परिवार के लोग।

जब हम जन्म लेते है, तो हम किसी ट्रेन में चढ़ते है। पहले से ही हमारी टिकट बुक रहती है। मालूम नही कि अग़ल बग़ल वाली सीट पर कौन बैठेगा, या बैठा होगा। हमें सीट मिलती है।अग़ल बग़ल के सीट वालों से अच्छी बात चीत और जान पहचान हो जाती है। ये अग़ल बग़ल, आमने सामने की सीट वाले लोग घर के कुछ पुराने लोग होते है, जो हमसे कई स्टेशन पहले ट्रेन में चढ़े थे। बहुत सारी जानकारियाँ  उनके पास पहले से ही होती है, रास्ते को लेकर। हमारे ट्रेन में सवार होने पर स्वागत और अभिवादन भी करते है। और जो आगे आने वाले स्टेशन पर चढ़ेंगे, वो घर के नए बच्चे होंगे, जो हमारे बाद परिवार में आते है। लेकिन इन सीट पर नए लोग तभी आएँगे, जब पुराने लोग उसे छोड़ के उतरेंगे। रह रह के पुराने यात्री उतरते जाते है, और नए यात्री इन सीट पर आते जाते है। फिर एक ऐसा समय भी आता है, जब मेरा स्टेशन आ जाता है, और मुझे भी वो सीट छोड़ कर उतरना होता है। 

हमारी आसपास की सीट पर बैठे लोगों, यानी कि परिवार के लोगों से आत्मीयता ज़्यादा हो जाती है। इन सीट से कुछ दूर पर बैठे लोग, हमारे पड़ोसी की तरह होते है। इन पड़ोस की सीट पर बैठे लोगों से हमें ज़्यादा मतलब होता नही है। सिवाय इसके कि    रास्ते से आते जाते समय एक दूसरे को अजीब नज़रों से देखना और देख कर मुस्कुरा देना। या फिर पड़ोसियों के फेंके हुए बिस्किट के  ख़ाली पैकेट को धीरे से उनकी तरफ़ खिसका देना। ये पड़ोसी भी स्टेशन के साथ उतरते चढ़ते रहते है।   इन पड़ोसियों में कुछ को पहले से ही अच्छी सीट मिली होती है, तो किसी को फटी पुरानी। कोई पुरानी सीट को भी ढंग से साफ़ करके, मस्त कपड़ा बिछा के उसपे लेटा रहता है। आस पास के लोग उनकी अच्छी सीट से जलते रहते है। और टिकट बनाने वाले को कोसते रहते है।

छोटी सी लम्बी ये ट्रेन यात्रा है, लेकिन उतरना तो सबको है। लेकिन जब तक यात्रा में है, तब तक मज़े से किया जाए। हँसते खेलते कट जाए रस्ते। 

और ब्लॉग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करे।

1 thought on “ट्रेन और जीवन”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *