आनंद मठ उपन्यास की कहानी

आनंद मठ

आनंद मठ उपन्यास की कहानी 1770 के आस पास हुए सन्यासी विद्रोह के ऊपर आधारित है। 1770 से 1774 में बंगाल में भीषण अकाल आया था। जिसमें बंगाल के लोग दाने दाने के लिए तरसने लगे थे। लोग गाव छोड़ छोड़ के जंगलो की तरफ़ पलायन करने लगे थे। गाव में खाने के लिए अन्न तो नहीं था। पर कम से कम जंगल में फल और पत्ते तो मिल जाते थे। कई जगह तो ये भी वर्णन आया है कि लोग एक दूसरे को मार के भी खाने लगे थे। 

आनंद मठ की कहानी एक सन्यासी समुदाय, उसके सदस्यों के जीवन के इर्द गिर्द घूमती है। हमारा राष्ट्रीय गीत वन्दे मातरम् इसी उपन्यास की देन है। जिसे इसके पात्र समय समय पर गुनगुनाते रहते है।

अंग्रेज़ी हुकूमत जो अभी तक प्रशासन में नहीं थी बल्कि सिर्फ़ राजस्व में थी। मतलब की जनता के सुख और सुविधा और उनके संकट से कुछ मतलब नहीं था। मतलब था तो सिर्फ़ राजस्व वसूली और व्यापार। कैसे कैसे करके एक निर्धारित क्षेत्र से पैसा उगाहा जा सके, यही उनका परम ध्येय था। चाहे भले ही जनता के पास खाने के लिए अन्न ना हो लेकिन उनको टैक्स का पैसा पूरा चाहिए। 

इन्ही सब के बीच में उभरा था सन्यासी विद्रोह. इस विद्रोह को सन्यासी लोग जो सामाजिक जीवन छोड़ चुके थे, उन्होंने संचालित किया. और अंग्रेजो से लोहा लिया.

आनंद मठ उपन्यास के लेखक 

बंकिम चंद्र चटर्जी

इस उपन्यास के लेखक के बारे में कौन नहीं जनता। बंकिम चंद्र चटेर्जी। इनके बारे में यहा पर बताने की ज़्यादा आवश्यकता नहीं है। क्यूँकि इनके बारे आप यकीनन ज़रूरत से ज़्यादा जानते होंगे।

उपन्यास की कहानी 

इसकी कहानी चार खंडो में बटी हुई है-

हम यहा पर इस आनंद मठ उपन्यास की कहानी को इन्ही खंडो की मदद से जानेंगे। ये खंड है- 

1- आनन्दमय कानन के आनंद मठ में 

2- शांति नवीनानंद स्वामी के रूप में 

3- संतानो का विजय उत्सव

4- जीवानंद और शांति का प्रायश्चित्त 

1- आनंदमय कानन के आनंद मठ में-

इस भाग्य में मुख्य पात्र है महेंद्र और कल्याणी। दोनो पति पत्नी एक गाव में रहते है। उनकी एक 6 7 महीने की बेटी है। सम्पन्न परिवार है। घर में बहुत सारी सम्पत्ति पड़ी है। परंतु अकाल के कारण अन्न का एक एक दाना जुटाना मुश्किल पड़ रहा है। जब अनाज ही नही है तो खायेंगे क्या ? सोना,चाँदी और रुपये से पेट तो नही भरता है।अतः यह दम्पत्ति गाव छोड़ने का फ़ैसला करता है। कलकत्ता जाएँगे और वहा कुछ काम करके अनाज की व्यवस्था करेंगे। अगर कलकत्ता नही पहुँचे तो कम से कम जंगल में जाकर वही फल और पत्तियाँ खाकर अपना पेट भरेंगे।

रास्ता बहुत कठिन था। पूरे रास्ते में खाली और सुने गाव नज़र आ रहे थे। उस गाव के लोग या तो भूख प्यास से मर गए थे या अपना गाँव छोड़कर जंगल या शहर में पलायन कर गये थे। रास्ते में ऐसे हाई एक गाव मिलता है। जहाँ पर ये दोनो रुकते है। महेंद्र अपनी बच्ची के लिए दूध की तलाश में निकलते है। और काफ़ी देर तक नही आते है। इसी बीच जंगल से बाहर आए डाकू कल्याणी और उसकी बच्ची का अपहरण कर लिए। 

महेंद्र और कल्याणी

इधर जब महेंद्र वापस आए तो देखा उनकी पत्नी और बच्ची वहा से लापता है।उनके होश हवास गुम हो गए। अपनी पत्नी का नाम तेज तेज चिल्लाते हुए इधर उधर भटकने लगे। कभी इस गाव तो उस गाव। कभी इस सड़क तो उस सड़क। उनकी भेष भूसा देखकर, एक अंग्रेजो का दल जो उसी रास्ते पर जा रहा था, उन्हें सन्यासी विद्रोही समझ कर गिरफ़्तार कर लिया। अपनी बैलगाड़ी मे रस्सी से बांध कर उन्हें खिचते हुए चले जाने लगे। उधर जंगल के डाकू कल्याणी और उसकी बेटी को ज़िंदा फूंक कर खाने के तैयारी में लग गए। इसी बीच इन डाकुओं का आपस में लेन देन को लेकर कुछ झगड़ा हुआ और मौक़ा देख कर कल्याणी अपनी बेटी को लेकर भाग निकली। बचते बचते वो जंगल के बीच में एक मठ आश्रम पर पहुँची।

यह मठ सन्यासियो का था। ये वही विद्रोही सन्यासी थे। ये अपने आपको को संतान कहते थे। संतान यानी भारत माता की संतान। इनके प्रमुख सन्यासी का नाम था, सत्यानंद। उन्होंने वहाँ कल्याणी के रहने और खाने की व्यवस्था की। वचन दिया कि अपने सन्यासी साथियों की मदद से उसके पति महेंद्र को भी ढूँढ लाएँगे।

सत्यानंद अपने दूसरे चेले भावानंद को महेंद्र को ढूँढने में लगा दिया।भवानंद को ज़्यादा समय नही मिला महेंद्र को ढूँढ निकलने में। दर-असल में यह पूरा क्षेत्र ही सन्यासियो का था। जहाँ तहा उनके गुप्तचर घूमे फिरते रहते थे। आसपास के स्थानीय जनता में भी उनकी अच्छी सहानुभूति और पकड़ थी। जिससे कोई भी खबर इनके कानो तक पहुचने में ज़्यादा देर नही लेती थी। वास्तव में महेंद्र और कल्याणी के अपने गाव छोड़ कर शहर जाने की बात भी उनको पहले ही मालूम हो चुकी थी। और संतान प्रमुख सत्यानंद चाहते थे कि महेंद्र सन्यासी विद्रोह में शामिल हो। चूकी महेंद्र सम्पन्न परिवार से आते थे। अगर वो सन्यासी या संतान बनते तो इस आंदोलन में और मदद मिलती। 

सत्यानंद महेंद्र और kalyani

मठ में महेंद्र और कल्याणी की फिर से मुलाक़ात होती है। सन्यासियो यानी कि संतानो के आंदोलन और विद्रोह के बारे में भी जानने के बारे में मौक़ा मिलता है उनको। मठ के प्रमुख सत्यानंद महेंद्र को संतान यानी कि सन्यासी बनने का आग्रह करते है। परंतु सन्यासी या संतान बनने का मतलब ये था कि उन्हें अपने गृहस्थ जीवन को  त्यागना पड़ता। महेंद्र का मन तो बहुत था परंतु अपनी पुत्री और पत्नी से भी प्यार बहुत थ। अतः  सत्यानंद के आग्रह को  महेंद्र विनम्रता से इनकार कर देते है। आनंद मठ से विदा होकर पत्नी सहित अपने रास्ते पर लौट पड़ते है।

परंतु क़िस्मत को मंज़ूर कुछ और था। उनकी पत्नी को पता चला कि उनकी वजह उनके पति को माँ भारती की सेवा करने का मौक़ा नही मिल पाया। इससे उसे और दुःख हुआ। कल्याणी ने मुश्किल वक्त में छुटकारा पाने के लिए एक ज़हर की पुड़िया बांध के रखा था। रास्ते में एक जगह सुस्ताते समय खेल खेल में कल्याणी की बेटी ने ज़हर खा लिया। यह देख कर कल्याणी और दुखी हुई और बाक़ी बचा ज़हर खा कर आत्म हत्या कर लिया। इधर महेंद्र अपनी पत्नी और पुत्री के शव पर विलाप कर ही रहे थे कि अचानक से पुलिस का दस्ता वहा आ धमका।

महेंद्र को सन्यासी समझ कर गिरफ़्तार कर लिया। वो कितना भी चिल्लाते रहे कि कम से कम मेरी बेटी और पत्नी का अंतिम संस्कार तो कर लेने दो। लेकिन उनकी एक ना सुनी और उन्हें अपने साथ घसीट कर ले चलते बने। महेंद्र अपनी क़िस्मत पर रो रहे थे। अंतिम समय में अपनी पत्नी और पुत्री का अंतिम संस्कार भी ना कर सके। जंगल के जानवर उनके शव को नोच नोच कर खा जाएँगे।

कुछ समय बीत चुका था। कल्याणी और उसकी बेटी का शव जंगल में पेड़  किनारे पड़ा हुआ था। तभी वहा से गुजरते हुए अलग अलग समय में दो  संतान सन्यासियो  की नज़र उस पर पड़ी। पहले ने देखा की माँ मर चुकी है जबकि बच्ची ज़िंदा है भूख से बिलख रही है। सो वह बच्ची को अपने साथ लेकर चला जाता है। और दूर गाव में अपनी निःसंतान बहन के यहा छोड़ देता है।

कुछ और समय बाद एक और सन्यासी संतान की नज़र कल्याणी के शव पर पड़ी।उसने पास जा कर बहुत सावधानी  से जाँच किया तो पाया कि उसकी  नाड़ी धीरे धीरे  चल रही है।जल्दी जल्दी उसने जंगल में भाग दौड़ जड़ी बूटियाँ बटोरी।उसका रस बनाकर दोनो को पिलाया। थोड़ी देर में कल्याणी  को होश आ चुका था। होश आने पर उसने अपनी बच्ची को नही पाया। उसे लगा कि उसकी बच्ची को कोई जंगली जानवर उठा लाया। इस सन्यासी संतान ने मठ प्रमुख सत्यानंद के आदेशानुसार कल्याणी के रहने का प्रबंध अपने भाई के यहा करा दिया। 

आनंद मठ में कल्याणी

महेंद्र को बाद में सत्यानंद ने अपने चेलो की मदद से जेल से छुड़ा लिया। और आश्रम में उनको सन्यास पंथ का पाठ पढ़ाया गया। पहले वो तैयार नही थे। लेकिन अब उनकी जानकारी में उनकी पत्नी और बेटी इस संसार में बचे ही नही थे। तो क्या करते। सन्यास पंथ को स्वीकार कर लिया।सत्यानंद ने महेंद्र को अपने गाव जाने का आदेश दिया। वहा जाकर अपने क़िले को मजबूत करे। सत्यानंद देश के अलग अलग हिस्सों से कारीगर भेजेंगे , जो हथियार बनाने में मदद करेंगे। पैसा और सामान की आपूर्ति लगातार जारी रहेगी। जिससे बहुत सारे हथियार बना के भविष्यके लिए सुरक्षित किया जाएगा। महेंद्र धीरे धीरे सेना बनाएँगे। महेंद्र आनंद मठ से लौट के अपने क़िले में सत्यानंद के कहे अनुसार अपने काम में लग गए।

2- शांति नवीनानंद स्वामी के रूप में  –

जीवानंद आनंद मठ के प्रमुख सत्यानंद के दाहिने हाथ थे। जीवानंद सन्यासी लड़ाकुओ के सेनापति के रूप में स्थापित थे।अभी तक जितनी भी लड़ाइयाँ हुई उसमें अंग्रेज सिपाहियों के छक्के छुड़ा दिए। सन्यास लेने से  पहले जीवानंद की शादी शांति से हुई थी। शांति बहुत ही खूबसूरत मगर योद्धावो जैसे गुणो से सम्पन्न थी। बचपन से ही वो पुरुषों की भेष भाषा बना कर इधर से उधर टहलती रहती थी।बाद में इसकी शादी जीवानंद से हुई।शादी  के कुछ साल बाद जीवानंद अपने देश की लड़ाई के लिए आनंद मठ के सम्पर्क में आए। और अपने गृहस्थ जीवन से सन्यास ले लिया।

सन्यास लेने के समय यह शपथ लेनी पड़ी कि वो अब अपनी पत्नी से कभी नही मिलेंगे।अगर आप ने ऊपर का पैराग्राफ़ ध्यान  से पढ़ा होगा तो, जीवानंद वही व्यक्ति थे जो महेंद्र की दूध पीती बच्ची को जंगल से बचा कर लाए थे और दूर गाव में अपनी बहन को सौंप दिया था।

इसी बच्ची को सौंपते समय इनकी मुलाक़ात होती है, फिर से अपनी पत्नी से। उनकी पत्नी शांति के मन में फिर से अभिलाषायें फूट पड़ती है। वो जीवानंद के साथ उनके साथ मठ और जंगल चलने की ज़िद करती है। परंतु संतान पंथ के अनुसार कोई भी महिला उनके समुदाय में शामिल नही हो सकती। और ऊपर से पति पत्नी तो कभी भी नही।

इसके चलते शांति चुपचाप बिना किसी को बताए अपने घर से निकल जाती है। एक युवा सन्यासी का भेष धारण करती है। और मठ में शामिल हो जाती है। बकायदे ढंग से सत्यानंद से अपनी दीक्षा भी प्राप्त करती है और नवीनानंद के रूप में सबके सामने आती है। सबकी नज़र में वो पुरुष ही है। धीरे धीरे वो जीवानंद के क़रीब आती है। जीवानंद उसे पहचान जाते है।फिर भी उसे दूर नही करते।उनके मन में भी शांति उर्फ़ नवीनानंद के लिए प्यार तो था ही। और इसी बहाने दोनो साथ रहने लगे। लेकिन उनकी नज़र में यह सन्यास या संतान पंथ को धोखा ही देना था। जीवानंद इसका प्रायश्चित करना चाहते थे। अपना जीवन युद्ध के मैदान में त्याग करके। 

संतान गाँव में

3- संतानो का विजय उत्सव   

संतानो की संख्या अब लगातार बढ़ती चली जा रही थी। धीरे धीरे वो लोग भी इसमें सम्मिलित होते चले गए जिनको संतानो के धर्म या कर्म से कुछ मतलब नही था।वो लोग इस आंदोलन से जुड़ रहे थे सिर्फ़ अपने पेट की भूख मिटाने और लूटपाट करने के लिए। अंग्रेज सिपाहियों और इनमे जगह जगह संघर्ष बढ़ता चला गया। अंग्रेज कप्तान टॉमस इन निहत्थे और अप्रशिक्षित लोगों को मार के खुश हो रहे थे। और अपने आला कमान को रिपोर्ट भेजते आज इतने हज़ार विद्रोहियों का दमन किया। परंतु असली विद्रोही तो जंगलो में छिपे रहते। इन जंगलो में जाकर उनके मठ और गढ़ तक पहुचने का रास्ता किसी को नही मालूम था। 

युद्ध के मैदान में

फिर अचानक एक दिन अंग्रेजो की बहुत बड़ी सेना किसी तरह से इनके गढ़ की तरफ़ कूच करने लगी। अब युद्ध सर पर मंडरा रहा था। अंग्रेजो की सेना और संतानो की सेना का आपस में मुक़ाबला होता है। भवानंद और जीवानंद उसका प्रतिनिधित्व करते है। बहुत भयंकर युद्ध होता है। ऐसा लगता है कि संतानो की पूरी सेना अंग्रेज़ी तोपों का शिकार हो जाएगी। फिर दूसरी तरफ़ से महेंद्र की सेना अपने तोपो के साथ युद्ध क्षेत्र में प्रवेश करती है। भयंकर लड़ाई छिदती है। परंतु आख़िर में भावानंद अपना सेना का नेतृत्व करते हुए अंतिम बलिदान देते है। संतानो की सेना आख़िर में बहुत कम बचती है। परंतु अंतिम समय में लड़ते लड़ते विजय को प्राप्त करती है।

4- जीवानंद और शांति का प्रायश्चित 

युद्ध के पश्चात कल्याणी उसकी पुत्री और पति महेंद्र का मिलन होता है। शांति और जीवानंद जो संतान धर्म के वचनो के ख़िलाफ़ साथ  साथ में रहते थे। अब अपने इस पाप का प्रायश्चित करना चाहते है। और इन सब युद्ध और आंदोलन से दूर निकल कर कही जंगलो में जाकर खो जाते है।

आनंद मठ संतानो का विजय उत्सव

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1 thought on “आनंद मठ उपन्यास की कहानी”

  1. हसरतें अपनी जगह हैं लेकिन इतनी सारी किताबों से होकर गुजरना तो थोड़ा मुश्किल है सबके लिए इतनी भागदौड़ में, लेकिन पढ़नेवाले मेहनती लोग पढ़ने के बाद सबके लिए जो बेहतरीन सार छोड़ जाते हैं उसके प्रवाह में भींगकर उन किताबों से रूबरू हो जाना अच्छा लगता है। आभार

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